बुधवार, 17 जून 2015

गण्डमूल / मूल नक्षत्र

गण्डमूल / मूल  नक्षत्र  :
इस श्रेणी में ६ नक्षत्र आते है !
१. रेवती, २. अश्विनी, ३. आश्लेषा, ४. मघा, ५. ज्येष्ठा, ६. मूल  यह ६ नक्षत्र
मूल संज्ञक / गण्डमूल संज्ञक नक्षत्र होते है !
रेवती, आश्लेषा, ज्येष्ठा का स्वामी बुध है ! अश्विनी, मघा, मूल का स्वामी केतु है !


इन्हें २ श्रेणी में विभाजित किया गया है -बड़े मूल व छोटे मूल !
मूल, ज्येष्ठा व आश्लेषा बड़े मूल कहलाते है, अश्वनी, रेवती व मघा छोटे मूल कहलाते है ;
बड़े मूलो में जन्मे बच्चे के लिए २७ दिन के बाद जब चन्द्रमा उसी नक्षत्र में जाये तो शांति
करवानी चाहिए ऐसा पराशर का मत भी है, तब तक बच्चे के पिता को बच्चे का मुह नहीं
देखना चाहिए ! जबकि छोटे मूलो में जन्मे बच्चे की मूल शांति उस नक्षत्र स्वामी के दूसरे
नक्षत्र में करायी जा सकती है अर्थात १०वे या १९वे दिन में !यदि जातक के जन्म के समय


चद्रमा इन नक्षत्रों में स्थित हो तो मूल दोष होता है ; इसकी शांति नितांत आवश्यक होती है !
जन्म समय में यदि यह नक्षत्र पड़े तो दोष होता है !
दोष मानने का कारण यह है की नक्षत्र चक्र और राशी चक्र दोनों में इन नक्षत्रों पर
संधि होती है ( चित्र में यह बात स्पष्टता से देखि जा सकती है ) !
और संधि का समय हमेशा से विशेष होता है ! उदाहरण के लिए रात्रि से जब दिन
 का प्रारम्भ होता है तो उस समय को हम ब्रम्हमुहूर्त कहते है ;
और ठीक इसी तरह जब दिन से रात्रि होती है तो उस समय को हम गदा बेला / गोधूली
 कहते है !
इन समयों पर भगवान का ध्यान करने के लिए कहा जाता है - जिसका सीधा सा अर्थ
है की इन समय पर सावधानी अपेक्षित होती है !
संधि का स्थान जितना लाभप्रद होता है उतना ही हानि कारक भी होता है !
संधि का समय अधिकतर शुभ कार्यों के लिए अशुभ ही माना जाता है !

गण्डमूल में जन्म का फल :
विभिन्न चरणों में दोष विभिन्न लोगो को लगता है, साथ ही इसका फल हमेशा बुरा ही
हो ऐसा नहीं है  !

अश्विनी नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - पिता के लिए कष्टकारी
द्वितीय पद में - आराम तथा सुख केलिए उत्तम
तृतीय पद में - उच्च पद
चतुर्थ पद में - राज सम्मान

आश्लेषा नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - यदि शांति करायीं जाये तो शुभ
द्वितीय पद में - संपत्ति के लिए अशुभ
तृतीय पद में - माता को हानि
चतुर्थ पद में - पिता को हानि

मघा नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - माता को हानि
द्वितीय पद में - पिता को हानि
तृतीय पद में - उत्तम
चतुर्थ पद में - संपत्ति व शिक्षा के लिए उत्तम

ज्येष्ठा नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - बड़े भाई के लिए अशुभ
द्वितीय पद में - छोटे भाई के लिए अशुभ
तृतीय पद में - माता के लिए अशुभ
चतुर्थ पद में - स्वयं के लिए अशुभ

मूल  नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - पिता के जीवन में परिवर्तन
द्वितीय पद में - माता के लिए अशुभ
तृतीय पद में - संपत्ति की हानि
चतुर्थ पद में - शांति कराई जाये तो शुभ फल

रेवती नक्षत्र में चन्द्रमा का फल :
प्रथम पद में - राज सम्मान
द्वितीय पद में - मंत्री पद
तृतीय पद में - धन सुख
चतुर्थ पद में - स्वयं को कष्ट

अभुक्तमूल
ज्येष्ठा की अंतिम एक घडी तथा मूल की प्रथम एक घटी अत्यंत हानिकर हैं
इन्हें ही अभुक्तमूल कहा जाता है, शास्त्रों के अनुसार पिता को बच्चे से ८ वर्ष
तक दूर रहना चाहिए ! यदि यह संभव ना हो तो कम से कम ६ माह तो अलग
ही रहना चाहिए ! मूल शांति के बाद ही बच्चे से मिलना चाहिए !
अभुक्तमूल पिता के लिए अत्यंत हानिकारक होता है !
यह तो था नक्षत्र गंडांत इसी आधार पर लग्न और तिथि गंडांत भी होता है -
लग्न गंडांत :- मीन-मेष, कर्क-सिंह, वृश्चिक-धनु लग्न की आधी-२ प्रारंभ व अंत की
घडी कुल २४ मिनट लग्न गंडांत होता है !
तिथि गंडांत :- ५,१०,१५ तिथियों के अंत व ६,११,१ तिथियों के प्रारम्भ की २-२ घड़ियाँ
तिथि गंडांत है रहता है !
**जन्म समय में यदि तीनों गंडांत एक साथ पड़ रहे है तो यह महा-अशुभ होता है ;
नक्षत्र गंडांत अधिक अशुभ, लग्न गंडांत मध्यम अशुभ व तिथि गंडांत सामान्य अशुभ
होता है, जितने ज्यादा गंडांत दोष लगेंगे किसी कुंडली में उतना ही अधिक अशुभ
फल करक होंगे !
गण्ड का अपवाद :
निम्नलिखित विशेष परिस्थितियों में गण्ड या गण्डांत का प्रभाव काफी हद तक कम हो जाता है (लेकिन फिर भी शांति अनिवार्य है) !
१.      गर्ग के मतानुसार
रविवार को अश्विनी में जन्म हो या सूर्यवार बुधवार को ज्येष्ठ, रेवती, अनुराधा, हस्त, चित्रा, स्वाति हो तो नक्षत्र जन्म दोष कम होता है !
२.      बादरायण के मतानुसार गण्ड नक्षत्र में चन्द्रमा यदि लग्नेश से कोई सम्बन्ध, विशेषतया दृष्टि सम्बन्ध न बनाता हो तो इस दोष में कमी होती है !
३.      वशिष्ठ जी के अनुसार दिन में मूल का दूसरा चरण हो और रात में मूल का पहला चरण हो तो माता-पिता के लिए कष्ट होता है इसलिए शांति अवश्य कराये!
४.      ब्रम्हा जी का वाक्य है की चन्द्रमा यदि बलवान हो तो नक्षत्र गण्डांत व गुरु बलि हो तो लग्न गण्डांत का दोष काफी कम लगता है !
५.      वशिष्ठ के मतानुसार अभिजीत मुहूर्त में जन्म होने पर गण्डांतादी दोष प्रायः नष्ट हो जाते है ! लेकिन यह विचार सिर्फ विवाह लग्न में ही देखें, जन्म में नहीं !
 द्वारा -Chandra Bhushan Tripathi 

AU_26-02-2009_Child_Born_in_Mula
सदैव घातक नहीं हैं मूल नक्षत्र ( मूल नक्षत्र और आपका भाग्शाली रत्न )
( मूल नक्षत्र और आपका भाग्शाली रत्न )
राशि और नक्षत्र दोनों जब एक स्थान पर समाप्त होते हैं तब यह स्थित गण्ड नक्षत्र कहलाती है और इस समापन स्थिति से ही नवीन राशि और नक्षत्र के प्रारम्भ होने के कारण ही यह नक्षत्र मूल संज्ञक नक्षत्र कहलाते हैं।
बच्चे के जन्म काल के समय सत्ताइस नक्षत्रों में से यदि रेवती, अश्विनी, श्लेषा, मघा, ज्येष्ठा अथवा मूल नक्षत्र में से कोई एक नक्षत्र हो तो सामान्य भाषा में वह दिया जाता है कि बच्चा मूलों में जन्मा है। अधिकांशतः लोगों में यह भ्रम भी उत्पन्न कर दिया जाता है कि मूल नक्षत्र में जन्मा हुआ बच्चे पर बहुत भारी रहेगा अथवा माता, पिता, परिजनों आदि के लिए दुर्भाग्य का कारण बनेगा अथवा अरिष्टकारी सिद्ध होगा।
राशि और नक्षत्र के एक स्थल पर उदगम और समागम के आधार पर नक्षत्रों की इस प्रकार कुल 6 स्थितियां बनती हैं अर्थात् तीन नक्षत्र गण्ड और तीन मूल संज्ञक। कर्क राशि तथा आश्लेषा नक्षत्र साथ-साथ समाप्त होते हैं तब यहॉ से मघा राशि का समापन और सिंह राशि का उदय होता है। इसी लिए इस संयोग को अश्लेषा गण संज्ञक और मघा मूल संज्ञक नक्षत्र कहते हैं।
वृश्चिक राशि और ज्येष्ठा नक्षत्र एक साथ समाप्त होते हैं। यहॉ से ही मूल और धनु राशि का प्रारंभ होता है। इसलिए इस स्थिति को ज्येष्ठा गण्ड और ‘मूल’ मूल संज्ञक नक्षत्र कहते हैं। मीन राशि और रेवती नक्षत्र एक साथ समाप्त होते हैं। यहॉ से मेष राशि व अश्विनि नक्षत्र प्ररांभ होते हैं। इसलिए इस स्थिति को रेवती गण्ड और अश्विनि मूल नक्षत्र कहते हैं।
उक्त तीन गण्ड नक्षत्र अश्लेषा, ज्येष्ठा और रेवती का स्वामी ग्रह बुध और मघा, मूल तथा अश्विनि तीन मूल नक्षत्रों का स्वामी केतु है। जन्म काल से नवें अथवा सत्ताइसवें दिन जब इन नक्षत्रों की पुनः आवृति होती है तब मूल और गण्ड नक्षत्रों के निमित्त शांति पाठों का विधान प्रायः चलन में है।
ज्योतिष के महाग्रंथों शतपथ ब्राह्मण और तैत्तिरीय ब्राह्मण में मूल नक्षत्रों के विषय में तथा इनके वेदोक्त मंत्रों द्वारा उपचार के विषय में विस्तार से वर्णन मिलता है। यदि जातक महाग्रंथों को ध्यान से टटोलें तो वहॉ यह भी स्पष्ट मिलता है उक्त छः मूल नक्षत्र सदैव अनिष्ट कारी नहीं होते। इनका अनेक स्थितियों में स्वतः ही अरिष्ट का परिहार हो जाता है। यह बात भी अवश्य ध्यान में रखें कि मूल नक्षत्र हर दशा में अरिष्ट कारक नहीं सिद्ध होते। इसलिए मूल नक्षत्र निर्णय से पूर्व हर प्रकार से यह सुनिश्चत अवश्य कर लेने में बौद्धिकता है कि वास्तव में मूल नक्षत्र अरिष्टकारी है अथवा नहीं। अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि दुर्भाग्यपूर्ण ऐसी स्थितियॉ मात्र 30 प्रतिशत ही संभावित होती हैं। लगभग 70 प्रतिशत दोषों में  इनका स्वतः ही परिहार हो जाता है।
जन्म यदि रेवती नक्षत्र के चौथे चरण में अथवा अश्विनि के पहले चरण में, श्लेषा के चौथे, मघा के पहले, ज्येष्ठा के चौथे अथवा मूल नक्षत्र के पहले चरण में हुआ है तो ही गण्ड मूल संज्ञक नक्षत्र उस व्यक्ति पर बनता है अन्य उक्त नक्षत्रों के चरणों में होने से नहीं।
जन्म के समय पूर्वी क्षितिज पर उदय हो रही राशि अर्थात् लग्न भी मूल नक्षत्रों के शुभाशुभ की ओर संकेत देते हैं। यदि वृष, सिंह, वृश्चिक अथवा कुंभ लग्न में जन्म हुआ हो तो मूल नक्षत्रों का दुष्प्रभाव नहीं लगता। देखा गया है कि इन लग्नों में हुआ जन्म भाग्यशाली ही सिद्ध होता है।
दिन और रात्रि काल के समयों का भी मूल नक्षत्रों के शुभाशुभ पर असर पड़ता है। विशेषकर कन्या का जन्म यदि दिन में और लड़के का रात्रि काल में हुआ है तब भी मूल नक्षत्रों का दुष्प्रभाव स्वतः ही नगण्य हो जाता है।
सप्ताह के दिनों का भी मूल के शुभाशुभ का प्रभाव होता है। शनिवार तीक्षण अथवा दारुण संज्ञक और मंगलवार उग्र अथवा क्रूर संज्ञक कहे गये हैं। इसलिए इन वारों में पड़ने वाले मूल या गण्ड नक्षत्रों का प्रभाव-दुष्प्रभाव अन्य दिनों की तुलना में पड़ने वाले वारों से अधिक कष्टकारी होता है।
नक्षत्रों के तीन मुखों अद्योमुखी, त्रियक मुखी और उर्घ्वमुखी गुणों के अधार पर भी मूल के शुभाशुभ की गणना की जाती है। रेवती नक्षत्र उर्घ्वमुखी होने के कारण सौम्य गण्ड संज्ञक कहे जाते हैं। परंतु अन्य मूल, अश्लेषा व मघा तथा ज्येष्ठा व अश्विनि क्रमशः अद्योमुखी और त्रियक मुखी होने के कारण तुलनात्मक रुप से अधिक अनिष्टकारी सिद्ध होते हैं।
काल, देश, व्यक्ति तथा नक्षत्र की पीड़ा अनुसार योग्य कर्मकाण्डी पंडितों द्वारा वैदिक पूजा का प्रावधान है। मान्यग्रंथों की मान्यता है कि अरिष्टकारी मूल और गण्ड मूलों की विधिनुसार शांति करवा लेने से उनका दुष्प्रभाव निश्चित रुप से क्षीण होता है। वेद मंत्रों द्वारा सर्वप्रथम योग्य विद्वान यह अवश्य सुनिश्चित कर लेते हैं कि व्यक्ति विशेष किस प्रकार के मूल नक्षत्र से पीढ़ित है और तदनुसार किस वेद मंत्र प्रयोग का प्रयोग पीढ़ित व्यक्ति पर किया जाए। इसके लिए 108 पवित्र स्थानों का जल, मिटटी तथा 108 वृक्षों के पत्ते एकत्रित करके सवा लाख मंत्र जप से शांति पाठ किया जाता है जो सामान्यतः 7 से 10 दिन में समाप्त होता है। दिनों की संख्या एवं उसका समापन निश्चित दिनों में सम्पन्न करना आवश्यक नहीं हो तो मंत्र जप का समापन इस प्रकार से सुनिश्चित किया जाता है कि पूजा का अंतिम दिन वही हो  जिस दिन जो नक्षत्र हो उस  नक्षत्र में ही व्यक्ति का जन्म हुआ हो। दान में चावल, गुड़, घी, काले तिल, गेंहू, कम्बल, जौ आदि देने का सामान्यतः चलन अनुसरण किया जाता है। यह भी मान्यता है कि मूल शान्ति के लिए किया जा रहा जप यदि त्रयम्बकेश्वर, हरिद्वार, गया, पुष्कर, उज्जैन, बद्रीनाथ धाम आदि सिद्ध तीथरें स्थलों में किया जाए तो सुप्रभाव शीघ्र देखने को मिलता है। समय, धन आदि की समस्या को देखते हुए यदि पूजन किसी अन्य स्थान में सम्पन्न किया जाता है तो भी परिणाम अवश्य मिलता है।
आश्लेषा मूल में सर्प, मघा में पितृ, ज्येष्ठा में इन्द्र, मूल में प्रजापति तथा रेवती नक्षत्र में पूषा देवों की पूजा-आराधना का भी अनेक स्थानों पर चलन है।
मूल नक्षत्र की जो भी अवधारणा है सर्वप्रथम उससे डरने की तो बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है। हॉ, कोई सक्षम है तो अपनी-अपनी श्रद्धानुसार उसके शांति के कर्म शास्त्रोक्त विधि-विधान से अवश्य करवा सकता है।
कठिनाई वहॉ आती है जब समस्या का उचित आंकलन नहीं हो पाता और समस्या से भी बड़ी समस्या तब उत्पन्न होती है जब उपयुक्त प्रकार के अभावों में उसका निदान नहीं हो पाता।
मूल समस्या समाधान हेतु अपनी रत्नों वाली चर्चित पुस्तक, ‘स्वयं चुनिए अपना भाग्यशाली रत्न’ में मैंने निदान स्वरुप मूलशांति के लिए रत्न गणना का भी विस्तार से विवरण दिया है। यदि रत्न विषय में रुचि है और पीड़ित व्यक्ति स्वयं साध्य बौद्धिक गणनाओं से किसी ठोस निष्कर्ष पर पहॅुचना चाहते हैं तो एक बार रत्न प्रयोग करके भी अवश्य देखें।
सर्वप्रथम आप शुद्ध जन्म पत्री से अपना जन्म नक्षत्र, उसका चरण तथा लग्न जान लें। माना आपका जन्म रेवती नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। यह दर्शाता है कि आपको मान-सम्मान मिलना है। यह इंगित करता है कि आपको अपनी जन्म कुण्डली के दशम भाव के अनुसार शुभ फल मिलना है। इस प्रकार यदि आप अपनी जन्म कुण्डली में दसवें भाव की राशि के अनुरुप रत्न धारण कर लेते हैं तो आपको शुभ फल अवश्य मिलेगा। माना आपकी लग्न मकर है। इसके अनुसार आपके दसवें भाव का स्वामी शुक्र हुआ। शुक्र ग्रह के अनुसार यदि आप हीरा अथवा उसका उपरत्न ज़िरकन धारण कर लेते हैं तो आपको लाभ ही लाभ मिलेगा।
माना आपका जन्म मघा नक्षत्र के चतुर्थ चरण में हुआ है तो यह दर्शाता है कि आप धन संबंधी विषयों में भाग्यशाली रहेंगे। जन्म पत्री में दूसरे भाव से धन संबंधी पहलुओं पर विचार किया जाता है। यदि आपका जन्म सिंह लग्न में हुआ है तो दूसरे भाव में कन्या राशि होगी। जिसका स्वामी ग्रह बुध है। इस स्थिति में बुध का रत्न पन्ना आपको विशेष रुप से लाभ देगा।
एक अन्य उदाहरण देखें, आपको विधि और भी सरल लगने लगेगी। माना आपका जन्म अश्लेषा नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। इसका अर्थ है कि आप सुखी हैं। यदि आपका जन्म मेष लग्न में हुआ है तो सुख के कारक भाव अर्थात् चतुर्थ में कर्क राशि होगी। इस राशि का रत्न है मोती। आप यदि इस स्थिति में मोती धारण करते हैं तो वह आपको सुख तथा शांति देने वाला होगा।
मूल संज्ञक नक्षत्र यदि शुभ फल देने वाले है। तब रत्न का चयन करना सरल है। कठिनाई उस स्थिति में आती है जब वह अरिष्ट कारी बन जाएं। आप यदि थोड़ा सा अभ्यास कर लेते हैं तो यह भी पूर्व की भांति सरल प्रतीत होने लगेगा। कुछ उदाहरणों से अपनी बात स्पष्ट करता हॅू।
माना आपका जन्म ज्येष्ठा नक्षत्र के तृतीय चरण में हुआ है। यह इंगित करता है कि आपका जन्म माता पर भारी हैं। आपके जन्म लेने से वह कष्टों में रहती होगी। जन्म पत्री में माता का विचार चतुर्थ भाव से किया जाता है। ध्यान रखें यहॉ पर चतुर्थ भाव में स्थित राशि का रत्न धारण नहीं करना है। अरिष्टकारी परिस्थिति में आप देखें कि जिस भाव से यह दोष संबंधित है उसमें स्थित राशि की मित्र राशियॉ कौन-कौन सी हैं। वह राशि कारक राशियों से यदि षडाष्टक दोष बनाती हैं तथा त्रिक्भावों अर्थात् 6, 8 अथवा 12वें भाव में स्थित हों तो उन्हें छोड़ दें। अन्य मित्र राशियों के स्वामी ग्रहों से संबंधित रत्न-उपरत्न आपको मूल नक्षत्र जनित दोषों से मुक्ति दिलवाने में लाभदायक सिद्ध होंगे। साधारण परिस्थिति में शुभ राशि विचार मित्र चक्र से कर सकते हैं। परन्तु यदि रत्न चयन के लिए आप गंभीरता से विचार कर रहे हैं तो मैत्री के लिए पंचधा मैत्री चक्र से अवश्य विचार करें। माना इस उदाहरण से जन्म मेष राशि में हुआ है। चतुर्थ भाव में यहॉ कर्क रशि होगी जिसका स्वामी ग्रह है चंद्र और रत्न है मोती। इस स्थिति में मोती धारण नहीं करना है। चंद्र के नैसर्गिक मित्र ग्रह हैं, सूर्य, मंगल तथा गुरु। इन ग्रहों की राशियॉ क्रमशः हैं – सिंह, मेष तथा वृश्चिक और धनु तथा मीन। धनु राशि कर्क राशि से छठे भाव में स्थित है अर्थात् षडाष्टक दोष बना रही है। इसलिए यहॉ इसके स्वामी ग्रह गुरु का रत्न पुखराज धारण नहीं करना है। इस उदाहरण में माणिक्य अथवा मूंगा रत्न लाभदायक सिद्ध होगा।
by मानसश्री गोपाल राजू (वैज्ञानिक),

गण्ड मूल के नक्षत्रों में जन्म लेने वाले जातकों पर क्या प्रभाव पड़ता है?
- कुसुमलता, झरिया, झारखंड
‘जातका भरणम’, ‘जातक पारिजात’ और ‘ज्योतिष पाराशर’ ग्रंथों में गण्डांत या गण्ड मूल नक्षत्रों का उल्लेख है। मुख्यत: वे नक्षत्र, जिनसे राशि और नक्षत्र दोनों का ही प्रारम्भ या अंत होता है, वे इस श्रेणी में आते हैं। इस तरह अश्विनी, आश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा, मूल और रेवती नामक नक्षत्र गण्ड मूल नक्षत्र हैं। इन सभी नक्षत्रों के स्वामी या तो बुध हैं या केतु। शास्त्रों में इन सभी नक्षत्रों में जन्म लेने वाले जातकों के लिए जन्म से ठीक 27वीं तिथि को मूल शांति आवश्यक बताई गई है। वैसे इन नक्षत्रों में जन्म लेने वाले जातकों के जीवन में किसी तरह की नकारात्मक स्थिति होती है, ऐसा नहीं है। लेकिन इन जातकों के लिए धन-हानि और अर्जित निधि को खोने की आशंकाएं बनी रहती है। अश्विनी, मघा और मूल नक्षत्र के चतुर्थ चरण में जन्म लेने वाले जातक जीवन में सफल होते हैं, वहीं रेवती नक्षत्र के तृतीय चरण में जन्म लेने वाले जातक भाग्यशाली होते हैं।

 मूल नक्षत्र शांति
राशि चक्र में तीन स्थितियां ऎसी आती हैं, जब राशि और नक्षत्र दोनों की समाप्ति एक साथ होती हैं इसे गण्ड नक्षत्र कहते हैं। दूसरे समाप्ति स्थल से नई राशि और नक्षत्र के उद्गम को मूल नक्षत्र कहते हैं। इस तरह तीन नक्षत्र गण्ड एवं तीन नक्षत्र मूल कहलाते हैं। इन नक्षत्रों में जन्मे शिशु के सुखद भविष्य के लिए शांति कराई जाती है। शांति कराने का शास्त्रीय विधान क्यों बताया गया है, यह ध्यान देने योग्य तथ्य है।
शास्त्रों की मान्यता है कि संधि क्षेत्र सदैव नाजुक और अशुभ होते हैं। जन सामान्य की मान्यतानुसार भी है- चौराहे, तिराहे, दिन-रात का संधि काल, संक्रांति का संधि काल, ऋतु-लग्न एवं ग्रह के संधि स्थल को शुभ नहीं मानते हैं। चूंकि गण्ड-मूल नक्षत्र भी संधि क्षेत्र में आने से नाजुक और दुष्परिणाम देन .

 भाग्यशाली होते हैं मूल नक्षत्र में जन्म लेने वाले
 ज्योतिषशास्त्र में गंड मूल नक्षत्र के अंतर्गत अश्विनी, रेवती, अश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा और मूल नक्षत्र को रखा गया है। ज्योतिषशास्त्रियों का मानना है कि अगर बच्चे का जन्म गंड मूल नक्षत्र में हो तब एक महीने के अंदर जब भी वही नक्षत्र लौटकर आए, उस दिन गंड मूल नक्षत्र की शांति करा लेनी चाहिए अन्यथा इसका अशुभ परिणाम प्राप्त होता है।
यह पूरी तरह सच नहीं है। शतपथ ब्राह्मण और तैत्तिरीय ब्राह्मण नामक ग्रंथ में बताया गया है कि कुछ स्थितियों में यह दोष अपने आप समाप्त हो जाता है। और इन नक्षत्रों में जन्म लेने वाले व्यक्ति खुद के लिए भाग्यशाली होता है।
व्यक्ति का जन्म अगर वृष, सिंह, वृश्चिक अथवा कुंभ लग्न में हो तब मूल नक्षत्र में जन्म होने पर भी इसका अशुभ फल प्राप्त नहीं होता है। गण्ड मूल नक्षत्र में जन्म लेने पर भी अगर लड़के का जन्म रात में और लड़की का जन्म दिन में हो तब मूल नक्षत्र का प्रभाव समाप्त हो जाता है। गण्ड मूल नक्षत्र मघा के चौथे चरण में जन्म लेने वाला बच्चा धनवान और भाग्यशाली होता है।
गण्डमूल का प्रभाव
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं। बच्चे का जन्म अश्विनी नक्षत्र के पहले चरण में, रेवती नक्षत्र के चौथे चरण में, अश्लेषा के चौथे चरण में, मघा एवं मूल के पहले चरण में एवं ज्येष्ठा के चौथे चरण में हुआ है तब मूल नक्षत्र हानिकारक होता है। बच्चे का जन्म अगर मंगलवार अथवा शनिवार के दिन हुआ है तो इसके अशुभ प्रभाव और बढ़ जाते हैं।

गण्डमूल नक्षत्रों चरणानुसार फल
चरण    अश्विनी    ऽश्लेषा    मघा    ज्येष्ठा    मूल    रेवती
प्रथम    पिता कष्ट    राज्य प्राप्ति    माता कष्ट    ज्येष्ठ भ्राता नाश    पिता नाश    राज्य प्राप्ति
दूसरा    शुभ    धन नाश    पिता कष्ट    छोटा भाई नाश    माता नाश    मन्त्री पद
तीसरा    शुभ    माता नाश    सुख    माता नाश    धन क्षय    सुख सम्पत्ति
चौथा    शुभ    पिता नाश    धन प्राप्ति    स्वयं नाश    शुभ    स्वयं कष्ट

गण्डमूल नक्षत्र
पुराणों में गण्डमूल नक्षत्र
पुराणों में अनेक स्थानों पर गंडांत नक्षत्रों का उल्लेख किय गया है |   रेवती नक्षत्र की अंतिम चार घड़ियाँ ,अश्वनी नक्षत्र की पहली चार घड़ियाँ गंडांत कही गई हैं | मघा ,आश्लेषा ,ज्येष्ठा एवम मूल नक्षत्र भी गंडांत हैं | विशेषतः ज्येष्ठा तथा मूल के मध्य का एक प्रहर अत्यंत अशुभ फल देने वाला है | इस अवधि में उत्पन्न बालक /बालिका व उसके माता -पिता को जीवन का भय होता है | गंडांत नक्षत्रों  को सभी शुभ कार्यों में त्याग देना चाहिए | 28 वें दिन उसी नक्षत्र में गण्डमूल दोष की शांति कराने पर दोष की निवृति हो जाती है |
स्कन्द पुराण  के काशी खंड में सुलक्षणा नाम की कन्या का वर्णन है जिसका जन्म मूल नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ था  तथा उस बाला के माता -पिता  दोनों का देहांत उस के जन्म  के कुछ समय के बाद ही हो गया था | नारद पुराण  के अनुसार मूल नक्षत्र के चतुर्थ चरण को छोड़ कर शेष चरणों में तथा ज्येष्ठा नक्षत्र के अंतिम चरण में  उत्पन्न संतान विवाहोपरांत अपने ससुर के लिए घातक होती है | ज्येष्ठा नक्षत्र में उत्पन्न कन्या अपने जेठ के लिए  तथा विशाखा में उत्पन्न कन्या अपने देवर के लिए  अशुभ फल का संकेत कारक होती है |दिन में गंडांत नक्षत्र में उत्पन्न संतान पिता को रात्रि में माता को व संध्या काल में स्वयम को कष्ट कारक होता है |
ज्योतिष शास्त्र  में गण्डमूल नक्षत्र
फलित ज्योतिष के  जातक पारिजात ,बृहत् पराशर होरा शास्त्र ,जातकाभरणं इत्यादि सभी   प्राचीन ग्रंथों में गंडांत नक्षत्रों तथा उनके प्रभावों का वर्णन दिया गया है |अश्वनी ,आश्लेषा ,मघा ,ज्येष्ठा ,मूल तथा रेवती  नक्षत्र  गण्डमूल नक्षत्र हैं |
अश्वनी  नक्षत्र के पहले चरण  में जन्म हो तो पिता को कष्ट तथा अन्य चरणों में शुभ होता है |
आश्लेषा  नक्षत्र के पहले चरण  में जन्म हो तो शुभ ,दूसरे में धन हानि ,तीसरे में माता को कष्ट तथा चौथे में पिता को कष्ट होता है |यह फल पहले दो  वर्षों में ही मिल जाता है
मघा     नक्षत्र के पहले चरण  में जन्म हो तो माता के पक्ष को हानि ,दूसरे में पिता को कष्ट तथा अन्य चरणों में शुभ होता है |
ज्येष्ठा नक्षत्र के पहले चरण  में जन्म हो तो बड़े भाई को कष्ट ,दूसरे में छोटे भाई को कष्ट, तीसरे में माता को कष्ट तथा चौथे में पिता को कष्ट होता है| यह फल पहले वर्ष में ही मिल जाता है |
ज्येष्ठा नक्षत्र एवम मंगलवार के योग में उत्पन्न कन्या अपने भाई के लिए घातक होती है | 
मूल नक्षत्र के पहले चरण  में जन्म हो तो पिता को कष्ट दूसरे में माता को कष्ट तीसरे में धन हानि तथा चौथे में शुभ होता है | मूल नक्षत्र व रवि वार के योग में उत्पन्न कन्या अपने ससुर का नाश करती है |यह फल पहले चार वर्षों में ही मिल जाता है
जातकाभरणं के अनुसार जन्म के समय  मूल नक्षत्र हो तथा कृष्ण  पक्ष की ३ ,१० या शुक्ल पक्ष की १४ तिथि हो एवम मंगल ,शनि या बुधवार हो तो सारे कुल के लिए अशुभ होता है |मूल नक्षत्र के साथ राक्षस ,यातुधान ,पिता ,यम व काल नामक मुहुर्तेशों  के काल में जन्म हो तो गण्डमूल दोष का प्रभाव अधिक विनाशकारी होता है |
 रेवती नक्षत्र के चौथे चरण  में जन्म हो तो माता -पिता के लिए अशुभ तथा अन्य चरणों में शुभ होता है |
अभुक्त मूल  ज्येष्ठा नक्षत्र की अंतिम दो घटियाँ तथा मूल नक्षत्र की आरम्भ  की दो घटियाँ अभुक्त मूल हैं जिनमें उत्पन्न बालक , कन्या  , कुल के लिए अनिष्टकारी होते हैं | इनकी शान्ति अति आवश्यक है |

Gand Mool Nakshatra - Meaning and Impact on Life 

 मूल नक्षत्र शांति और उपाय
शास्त्रों की मान्यता है कि संधि क्षेत्र हमेशा नाजुक और अशुभ होते हैं। जैसे मार्ग संधि (चौराहे-तिराहे), दिन-रात का संधि काल, ऋतु, लग्न और ग्रह के संधि स्थल आदि को शुभ नहीं मानते हैं। इसी प्रकार गंड-मूल नक्षत्र भी संधि क्षेत्र में आने से नाजुक और दुष्परिणाम देने वाले होते हैं। शास्त्रों के अनुसार इन नक्षत्रों में जन्म लेने वाले बच्चों के सुखमय भविष्य के लिए इन नक्षत्रों की शांति जरूरी है। मूल शांति कराने से इनके कारण लगने वाले दोष शांत हो जाते हैं।
क्या हैं गंड मूल नक्षत्र
राशि चक्र में ऎसी तीन स्थितियां होती हैं, जब राशि और नक्षत्र दोनों एक साथ समाप्त होते हैं। यह स्थिति "गंड नक्षत्र" कहलाती है। इन्हीं समाप्ति स्थल से नई राशि और नक्षत्र की शुरूआत होती है। लिहाजा इन्हें "मूल नक्षत्र" कहते हैं। इस तरह तीन नक्षत्र गंड और तीन नक्षत्र मूल कहलाते हैं। गंड और मूल नक्षत्रों को इस प्रकार देखा जा सकता है। 
कर्क राशि व अश्लेषा नक्षत्र एक साथ समाप्त होते हैं। यहीं से मघा नक्षत्र और çस्ंाह राशि का उद्गम होता है। लिहाजा अश्लेषा गंड और मघा मूल नक्षत्र है।
वृश्चिक राशि व ज्येष्ठा नक्षत्र एक साथ समाप्त होते हैं, यहीं से मूल नक्षत्र और धनु राशि की शुरूआत होने के कारण ज्येष्ठा "गंड" और "मूल" मूल का नक्षत्र होगा।
मीन राशि और रेवती नक्षत्र एक साथ समाप्त होकर यहीं से मेष राशि व अश्विनी नक्षत्र की शुरूआत होने से रेवती गंड तथा अश्विनी मूल नक्षत्र कहलाते हैं।
उक्त तीन गंड नक्षत्र अश्लेषा, ज्येष्ठा और रेवती का स्वामी ग्रह बुध है तथा तीन मूल नक्षत्र मघा, मूल व अश्विनी का स्वामी ग्रह केतु है। 27 या 10वें दिन जब गंड-मूल नक्षत्र दोबारा आए उस दिन संबंधित नक्षत्र और नक्षत्र स्वामी के मंत्र जप, पूजा व शांति करा लेनी चाहिए। इनमें से जिस नक्षत्र में शिशु का जन्म हुआ उस नक्षत्र के निर्धारित संख्या में जप-हवन करवाने चाहिए। 
गंड मूल नक्षत्रों में जन्म का फल 
मूल नक्षत्र के प्रथम चरण में उत्पन्न होने वाले शिशु (पुल्लिंग) के पिता को कष्ट, द्वितीय चरण में माता को कष्ट और तृतीय चरण में धन ऎश्वर्य हानि होती है। चतुर्थ चरण में जन्म हो तो शुभ होता है। जन्म लेने वाला शिशु स्त्रीलिंग हो तो प्रथम चरण मे श्वसुर को, द्वितीय में सास को और तीसरे चरण में दोनों कुल के लिए नेष्ट होती है।
चतुर्थ चरण में जन्म हो तो शुभ होता है। अश्लेष्ाा के प्रथम चरण में जन्मे जातक के लिए शुभ, द्वितीय चरण में धन ऎश्वर्य हानि और तृतीय चरण में माता को कष्ट होता है। चतुर्थ चरण में जन्म हो तो पिता को कष्ट होता है। जन्म लेने वाला शिशु स्त्रीलिंग हो तो प्रथम चरण में सुख समृद्धि और अन्य चरणों में सास को कष्ट कारक होती है। मघा के प्रथम चरण में जन्मे जातक/जातिका की माता को कष्ट, द्वितीय चरण में पिता को कष्टकारक, तृतीय चरण में सुख समृद्धि और चतुर्थ चरण में जन्म हो तो धन लाभ। 
ज्येष्ठा के प्रथम चरण में बडे भाई को नेष्ट, द्वितीय चरण में छोटे भाई को कष्ट, तीसरे में माता को तथा चतुर्थ चरण में जन्म होने पर स्वयं के लिए कष्टकारक होता है। स्त्री जातक का जन्म हो तो प्रथम चरण में जेठ को, द्वितीय में छोटी बहिन/देवर को तथा तृतीय में सास/माता के लिए कष्ट। चतुर्थ चरण में जन्म हो तो देवर के लिए श्रेष्ठ। रेवती के प्रथम तीन चरणों में स्त्री/पुरूष जातक का जन्म हो तो अत्यन्त शुभ, राज कार्य से लाभ तथा धन ऎश्वर्य में वृद्धि होती है। लेकिन चतुर्थ चरण में जन्म हो तो स्वयं के लिए कष्टकारक होता है। अश्विनी के प्रथम चरण में पिता को कष्ट शेष तीन चरणों में धन-ऎश्वर्य वृद्धि, राज से लाभ तथा मान सम्मान मिलता है।
गंड मूल नक्षत्र शांति मंत्र
अश्विनी नक्षत्र (स्वामित्व अश्विनी कुमार):ॐ अश्विनातेजसाचक्षु: प्राणेन सरस्वतीवीर्यम। वाचेन्द्रोबलेनेंद्राय दधुरिन्द्रियम्। ॐ अश्विनी कुमाराभ्यां नम:।। (जप संख्या 5,000)।
अश्लेषा (स्वामित्व सर्प):ॐ नमोस्तु सप्र्पेभ्यो ये के च पृथिवी मनु: ये अन्तरिक्षे ये दिवितेभ्य: सप्र्पेभ्यो नम:।। ॐ सप्र्पेभ्यो नम:।। (जप संख्या 10,000)।
मघा (स्वामित्व पितर):ॐ पितृभ्य: स्वधायिभ्य: स्वधानम: पितामहेभ्य स्वधायिभ्य: स्वधा नम:। प्रपितामहेभ्य स्वधायिभ्य: स्वधा नम: अक्षन्नापित्रोमीमदन्त पितरोùतीतृपन्तपितर: पितर: शुन्धध्वम्।। ॐ पितृभ्यो नम:/पितराय नम:।। (जप संख्या 10,000)।
ज्येष्ठा (इन्द्र): ॐ त्रातारमिन्द्रमवितारमिन्द्र हवे हवे सुह्न शूरमिन्द्रम् ह्वयामि शक्रं पुरूहूंतमिन्द्र स्वस्तिनो मधवा धात्विंद्र:।। ॐ शक्राय नम:।। (जप संख्या 5,000)।

मूल (राक्षस): ॐ मातेव पुत्र पृथिवी पुरीष्यमणि स्वेयोनावभारूषा। तां विश्वेदेवर्ऋतुभि: संवदान: प्रजापतिविश्वकर्मा विमुच्चतु।। ॐ निर्ऋतये नम:।। (जप संख्या 5,000)।
रेवती (पूष्ाा): ॐ पूषन् तवव्रते वयं नरिष्येम कदाचन स्तोतारस्त इहस्मसि।। ॐ पूष्णे नम:। (जप संख्या 5,000)।
गंड नक्षत्र स्वामी बुध के मंत्र
"ॐ उदबुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्ठापूर्ते संसृजेथामयं च अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत।।" के नौ हजार जप कराएं। दशमांश संख्या में हवन कराएं। हवन में अपामार्ग (ओंगा) और पीपल की समिधा काम में लें।
मूल नक्षत्र स्वामी केतु के मंत्र
"ॐ केतुं कृण्वन्न केतवे पेशो मय्र्याअपेशसे समुष्ाभ्दिजायथा:।।" के सत्रह हजार जप कराएं और इसके दशमांश मंत्रों के साथ दूब और पीपल की समिधा काम में लेें।
 अशुभ नहीं, इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति होते हैं कामयाब
राकेश
इंटरनेट डेस्क
ज्योतिषशास्त्र में 27 नक्षत्रों में से छह नक्षत्रों को अशुभ नक्षत्र माना गया है। इन नक्षत्रों में बच्चे का जन्म होना बच्चे एवं परिवार के सदस्यों के लिए अशुभ माना जाता है। ज्योतिषशास्त्र की भाषा में इन नक्षत्रों को गण्डमूल नक्षत्र कहा जाता है। इन्हीं अशुभ नक्षत्रों में से एक है 'ज्येष्ठा नक्षत्र'। आकाश मंडल में इस नक्षत्र का स्थान अठारहवां है।
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार घर में किसी बच्चे का जन्म इस नक्षत्र में होने पर उसकी मूल शांति जरूर करा लेनी चाहिए अन्यथा यह बच्चे अथवा परिवार के किसी सदस्य के लिए कष्टकारी हो सकता है। मूल शांति होने के बाद नक्षत्र का दोष समाप्त हो जाता है। ऐसा व्यक्ति व्यक्तिगत तौर पर बहुत ही भाग्यशाली होता है।
यह नौकरी करे अथवा व्यवसाय दोनों ही क्षेत्र में कामयाब होते हैं। इसका कारण यह है कि ऐसे व्यक्ति बड़े ही फुर्तीले और सजग होते हैं। बुध इस नक्षत्र का स्वामी होता है जो इन्हें बुद्धिमान और व्यापारिक योग्यताएं प्रदान करता है इसलिए विशेषतौर पर व्यापार में इन्हें अच्छी सफलता मिलती है।
ज्येष्ठा नक्षत्र में पैदा हुए व्यक्ति किसी विचारधारा में बंधकर रहने की बजाय समय के साथ चलना पसंद करते हैं और मौके एवं परिस्थितियों का भरपूर लाभ उठाते हैं। इस नक्षत्र के चारों चरण वृश्चिक राशि में होते हैं जिसके स्वामी मंगल हैं। यही कारण है कि इस ज्येष्ठा नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति जमीन एवं भवन की खरीद बिक्री में रूचि रखते हैं। ऐसे व्यक्ति कई स्रोतों से धन अर्जित करते हैं।
परिवार के प्रति यह अपने उत्तरदायित्व को बखूबी समझते हैं और सगे-संबंधियों का ख्याल रखते हैं। भौतिक सुख-सुविधाओं की इनमें बड़ी चाहत रहती है और अपनी इन चाहतों को पूरा करने में यह सफल भी होते हैं। ऐसे व्यक्ति उतावलेपन में कई बार अपना ही नुकसान कर लेते हैं। इनके व्यक्तित्व की एक बड़ी कमी यह होती है कि जो दिल में होता है उसे साफ-साफ कह देते हैं जिसके कारण मित्रों की संख्या कम होती है।

ऐस्‍ट्रो अंकल: गण्‍ड मूल नक्षत्र में पैदा हुए बच्‍चों ...

aajtak.intoday.in › 
Apr 15, 2013
गण्‍ड मूल नक्षत्र में पैदा हुए बच्‍चों के प्रति समाज में एक अजीब सा डर है और कई भ्रांतियां हैं. उनके जीवन में आयी किसी भी परेशानी के लिए मूल नक्षत्र में पैदा होने को ही ...
मूल नक्षत्र और आपका भाग्शाली रत्न
( सदैव घातक नहीं हैं मूल नक्षत्र )
राशि और नक्षत्र दोनों जब एक स्थान पर समाप्त होते हैं तब यह स्थित गण्ड नक्षत्र कहलाती है और इस समापन स्थिति से ही नवीन राशि और नक्षत्र के प्रारम्भ होने के कारण ही यह नक्षत्र मूल संज्ञक नक्षत्र कहलाते हैं।
बच्चे के जन्म काल के समय सत्ताइस नक्षत्रों में से यदि रेवती, अश्विनी, श्लेषा, मघा, ज्येष्ठा अथवा मूल नक्षत्र में से कोई एक नक्षत्र हो तो सामान्य भाषा में वह दिया जाता है कि बच्चा मूलों में जन्मा है। अधिकांशतः लोगों में यह भ्रम भी उत्पन्न कर दिया जाता है कि मूल नक्षत्र में जन्मा हुआ बच्चे पर बहुत भारी रहेगा अथवा माता, पिता, परिजनों आदि के लिए दुर्भाग्य का कारण बनेगा अथवा अरिष्टकारी सिद्ध होगा।
राशि और नक्षत्र के एक स्थल पर उदगम और समागम के आधार पर नक्षत्रों की इस प्रकार कुल 6 स्थितियां बनती हैं अर्थात् तीन नक्षत्र गण्ड और तीन मूल संज्ञक। कर्क राशि तथा आश्लेषा नक्षत्र साथ-साथ समाप्त होते हैं तब यहॉ से मघा राशि का समापन और सिंह राशि का उदय होता है। इसी लिए इस संयोग को अश्लेषा गण संज्ञक और मघा मूल संज्ञक नक्षत्र कहते हैं।
वृश्चिक राशि और ज्येष्ठा नक्षत्र एक साथ समाप्त होते हैं। यहॉ से ही मूल और धनु राशि का प्रारंभ होता है। इसलिए इस स्थिति को ज्येष्ठा गण्ड और ‘मूल’ मूल संज्ञक नक्षत्र कहते हैं। मीन राशि और रेवती नक्षत्र एक साथ समाप्त होते हैं। यहॉ से मेष राशि व अश्विनि नक्षत्र प्ररांभ होते हैं। इसलिए इस स्थिति को रेवती गण्ड और अश्विनि मूल नक्षत्र कहते हैं।
उक्त तीन गण्ड नक्षत्र अश्लेषा, ज्येष्ठा और रेवती का स्वामी ग्रह बुध और मघा, मूल तथा अश्विनि तीन मूल नक्षत्रों का स्वामी केतु है। जन्म काल से नवें अथवा सत्ताइसवें दिन जब इन नक्षत्रों की पुनः आवृति होती है तब मूल और गण्ड नक्षत्रों के निमित्त शांति पाठों का विधान प्रायः चलन में है।
ज्योतिष के महाग्रंथों शतपथ ब्राह्मण और तैत्तिरीय ब्राह्मण में मूल नक्षत्रों के विषय में तथा इनके वेदोक्त मंत्रों द्वारा उपचार के विषय में विस्तार से वर्णन मिलता है। यदि जातक महाग्रंथों को ध्यान से टटोलें तो वहॉ यह भी स्पष्ट मिलता है उक्त छः मूल नक्षत्र सदैव अनिष्ट कारी नहीं होते। इनका अनेक स्थितियों में स्वतः ही अरिष्ट का परिहार हो जाता है। यह बात भी अवश्य ध्यान में रखें कि मूल नक्षत्र हर दशा में अरिष्ट कारक नहीं सिद्ध होते। इसलिए मूल नक्षत्र निर्णय से पूर्व हर प्रकार से यह सुनिश्चत अवश्य कर लेने में बौद्धिकता है कि वास्तव में मूल नक्षत्र अरिष्टकारी है अथवा नहीं। अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि दुर्भाग्यपूर्ण ऐसी स्थितियॉ मात्र 30 प्रतिशत ही संभावित होती हैं। लगभग 70 प्रतिशत दोषों में  इनका स्वतः ही परिहार हो जाता है।
जन्म यदि रेवती नक्षत्र के चौथे चरण में अथवा अश्विनि के पहले चरण में, श्लेषा के चौथे, मघा के पहले, ज्येष्ठा के चौथे अथवा मूल नक्षत्र के पहले चरण में हुआ है तो ही गण्ड मूल संज्ञक नक्षत्र उस व्यक्ति पर बनता है अन्य उक्त नक्षत्रों के चरणों में होने से नहीं।
जन्म के समय पूर्वी क्षितिज पर उदय हो रही राशि अर्थात् लग्न भी मूल नक्षत्रों के शुभाशुभ की ओर संकेत देते हैं। यदि वृष, सिंह, वृश्चिक अथवा कुंभ लग्न में जन्म हुआ हो तो मूल नक्षत्रों का दुष्प्रभाव नहीं लगता। देखा गया है कि इन लग्नों में हुआ जन्म भाग्यशाली ही सिद्ध होता है।
दिन और रात्रि काल के समयों का भी मूल नक्षत्रों के शुभाशुभ पर असर पड़ता है। विशेषकर कन्या का जन्म यदि दिन में और लड़के का रात्रि काल में हुआ है तब भी मूल नक्षत्रों का दुष्प्रभाव स्वतः ही नगण्य हो जाता है।
सप्ताह के दिनों का भी मूल के शुभाशुभ का प्रभाव होता है। शनिवार तीक्षण अथवा दारुण संज्ञक और मंगलवार उग्र अथवा क्रूर संज्ञक कहे गये हैं। इसलिए इन वारों में पड़ने वाले मूल या गण्ड नक्षत्रों का प्रभाव-दुष्प्रभाव अन्य दिनों की तुलना में पड़ने वाले वारों से अधिक कष्टकारी होता है।
नक्षत्रों के तीन मुखों अद्योमुखी, त्रियक मुखी और उर्घ्वमुखी गुणों के अधार पर भी मूल के शुभाशुभ की गणना की जाती है। रेवती नक्षत्र उर्घ्वमुखी होने के कारण सौम्य गण्ड संज्ञक कहे जाते हैं। परंतु अन्य मूल, अश्लेषा व मघा तथा ज्येष्ठा व अश्विनि क्रमशः अद्योमुखी और त्रियक मुखी होने के कारण तुलनात्मक रुप से अधिक अनिष्टकारी सिद्ध होते हैं।
काल, देश, व्यक्ति तथा नक्षत्र की पीड़ा अनुसार योग्य कर्मकाण्डी पंडितों द्वारा वैदिक पूजा का प्रावधान है। मान्यग्रंथों की मान्यता है कि अरिष्टकारी मूल और गण्ड मूलों की विधिनुसार शांति करवा लेने से उनका दुष्प्रभाव निश्चित रुप से क्षीण होता है। वेद मंत्रों द्वारा सर्वप्रथम योग्य विद्वान यह अवश्य सुनिश्चित कर लेते हैं कि व्यक्ति विशेष किस प्रकार के मूल नक्षत्र से पीढ़ित है और तदनुसार किस वेद मंत्र प्रयोग का प्रयोग पीढ़ित व्यक्ति पर किया जाए। इसके लिए 108 पवित्र स्थानों का जल, मिटटी तथा 108 वृक्षों के पत्ते एकत्रित करके सवा लाख मंत्र जप से शांति पाठ किया जाता है जो सामान्यतः 7 से 10 दिन में समाप्त होता है। दिनों की संख्या एवं उसका समापन निश्चित दिनों में सम्पन्न करना आवश्यक नहीं हो तो मंत्र जप का समापन इस प्रकार से सुनिश्चित किया जाता है कि पूजा का अंतिम दिन वही हो  जिस दिन जो नक्षत्र हो उस  नक्षत्र में ही व्यक्ति का जन्म हुआ हो। दान में चावल, गुड़, घी, काले तिल, गेंहू, कम्बल, जौ आदि देने का सामान्यतः चलन अनुसरण किया जाता है। यह भी मान्यता है कि मूल शान्ति के लिए किया जा रहा जप यदि त्रयम्बकेश्वर, हरिद्वार, गया, पुष्कर, उज्जैन, बद्रीनाथ धाम आदि सिद्ध तीथरें स्थलों में किया जाए तो सुप्रभाव शीघ्र देखने को मिलता है। समय, धन आदि की समस्या को देखते हुए यदि पूजन किसी अन्य स्थान में सम्पन्न किया जाता है तो भी परिणाम अवश्य मिलता है।
आश्लेषा मूल में सर्प, मघा में पितृ, ज्येष्ठा में इन्द्र, मूल में प्रजापति तथा रेवती नक्षत्र में पूषा देवों की पूजा-आराधना का भी अनेक स्थानों पर चलन है।
मूल नक्षत्र की जो भी अवधारणा है सर्वप्रथम उससे डरने की तो बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है। हॉ, कोई सक्षम है तो अपनी-अपनी श्रद्धानुसार उसके शांति के कर्म शास्त्रोक्त विधि-विधान से अवश्य करवा सकता है।
कठिनाई वहॉ आती है जब समस्या का उचित आंकलन नहीं हो पाता और समस्या से भी बड़ी समस्या तब उत्पन्न होती है जब उपयुक्त प्रकार के अभावों में उसका निदान नहीं हो पाता।
मूल समस्या समाधान हेतु अपनी रत्नों वाली चर्चित पुस्तक, ‘स्वयं चुनिए अपना भाग्यशाली रत्न’ में मैंने निदान स्वरुप मूलशांति के लिए रत्न गणना का भी विस्तार से विवरण दिया है। यदि रत्न विषय में रुचि है और पीड़ित व्यक्ति स्वयं साध्य बौद्धिक गणनाओं से किसी ठोस निष्कर्ष पर पहॅुचना चाहते हैं तो एक बार रत्न प्रयोग करके भी अवश्य देखें।
सर्वप्रथम आप शुद्ध जन्म पत्री से अपना जन्म नक्षत्र, उसका चरण तथा लग्न जान लें। माना आपका जन्म रेवती नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। यह दर्शाता है कि आपको मान-सम्मान मिलना है। यह इंगित करता है कि आपको अपनी जन्म कुण्डली के दशम भाव के अनुसार शुभ फल मिलना है। इस प्रकार यदि आप अपनी जन्म कुण्डली में दसवें भाव की राशि के अनुरुप रत्न धारण कर लेते हैं तो आपको शुभ फल अवश्य मिलेगा। माना आपकी लग्न मकर है। इसके अनुसार आपके दसवें भाव का स्वामी शुक्र हुआ। शुक्र ग्रह के अनुसार यदि आप हीरा अथवा उसका उपरत्न ज़िरकन धारण कर लेते हैं तो आपको लाभ ही लाभ मिलेगा।
माना आपका जन्म मघा नक्षत्र के चतुर्थ चरण में हुआ है तो यह दर्शाता है कि आप धन संबंधी विषयों में भाग्यशाली रहेंगे। जन्म पत्री में दूसरे भाव से धन संबंधी पहलुओं पर विचार किया जाता है। यदि आपका जन्म सिंह लग्न में हुआ है तो दूसरे भाव में कन्या राशि होगी। जिसका स्वामी ग्रह बुध है। इस स्थिति में बुध का रत्न पन्ना आपको विशेष रुप से लाभ देगा।
एक अन्य उदाहरण देखें, आपको विधि और भी सरल लगने लगेगी। माना आपका जन्म अश्लेषा नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। इसका अर्थ है कि आप सुखी हैं। यदि आपका जन्म मेष लग्न में हुआ है तो सुख के कारक भाव अर्थात् चतुर्थ में कर्क राशि होगी। इस राशि का रत्न है मोती। आप यदि इस स्थिति में मोती धारण करते हैं तो वह आपको सुख तथा शांति देने वाला होगा।
मूल संज्ञक नक्षत्र यदि शुभ फल देने वाले है। तब रत्न का चयन करना सरल है। कठिनाई उस स्थिति में आती है जब वह अरिष्ट कारी बन जाएं। आप यदि थोड़ा सा अभ्यास कर लेते हैं तो यह भी पूर्व की भांति सरल प्रतीत होने लगेगा। कुछ उदाहरणों से अपनी बात स्पष्ट करता हॅू।
माना आपका जन्म ज्येष्ठा नक्षत्र के तृतीय चरण में हुआ है। यह इंगित करता है कि आपका जन्म माता पर भारी हैं। आपके जन्म लेने से वह कष्टों में रहती होगी। जन्म पत्री में माता का विचार चतुर्थ भाव से किया जाता है। ध्यान रखें यहॉ पर चतुर्थ भाव में स्थित राशि का रत्न धारण नहीं करना है। अरिष्टकारी परिस्थिति में आप देखें कि जिस भाव से यह दोष संबंधित है उसमें स्थित राशि की मित्र राशियॉ कौन-कौन सी हैं। वह राशि कारक राशियों से यदि षडाष्टक दोष बनाती हैं तथा त्रिक्भावों अर्थात् 6, 8 अथवा 12वें भाव में स्थित हों तो उन्हें छोड़ दें। अन्य मित्र राशियों के स्वामी ग्रहों से संबंधित रत्न-उपरत्न आपको मूल नक्षत्र जनित दोषों से मुक्ति दिलवाने में लाभदायक सिद्ध होंगे। साधारण परिस्थिति में शुभ राशि विचार मित्र चक्र से कर सकते हैं। परन्तु यदि रत्न चयन के लिए आप गंभीरता से विचार कर रहे हैं तो मैत्री के लिए पंचधा मैत्री चक्र से अवश्य विचार करें। माना इस उदाहरण से जन्म मेष राशि में हुआ है। चतुर्थ भाव में यहॉ कर्क रशि होगी जिसका स्वामी ग्रह है चंद्र और रत्न है मोती। इस स्थिति में मोती धारण नहीं करना है। चंद्र के नैसर्गिक मित्र ग्रह हैं, सूर्य, मंगल तथा गुरु। इन ग्रहों की राशियॉ क्रमशः हैं – सिंह, मेष तथा वृश्चिक और धनु तथा मीन। धनु राशि कर्क राशि से छठे भाव में स्थित है अर्थात् षडाष्टक दोष बना रही है। इसलिए यहॉ इसके स्वामी ग्रह गुरु का रत्न पुखराज धारण नहीं करना है। इस उदाहरण में माणिक्य अथवा मूंगा रत्न लाभदायक सिद्ध होगा।
मानसश्री गोपाल राजू (वैज्ञानिक)
 ब्लॉग मैंने अपनी रूची के अनुसार बनाया है इसमें जो भी सामग्री दी जा रही है वह मेरी अपनी नहीं है कहीं न कहीं से ली गई है। अगर किसी के कॉपी राइट का उल्लघन होता है तो मुझे क्षमा करें।मैं हर इंसान के लिए ज्योतिष के ज्ञान के प्रसार के बारे में सोच कर इस ब्लॉग को बनाए रख रहा हूँ।
 

4 टिप्‍पणियां:

  1. Mera janam ashvini nakshart me hua hai,
    Janam ke samay kuch upday ya vidhi nahi karai gai hai , abhi is ka kuch samadhan hai
    DOB : 18-10-1986
    Time : 4:15 am
    Place: sagwara , Rajasthan

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  2. धन्यवाद मेरे प्रिय भाई राजवीर जी,
    आपने मेरी पुस्तक का विवरण दिया | आनंदित हूँ |नहीं तो कौन किसको पूछता है |
    नकल की बढती हुई मानसिकता से त्रस्त हूँ इसीलिए लेखन कार्य कम कर दिया है | छोटे-छोटे क्लिप्स के माध्यम से गुह्य विधाओं के भ्रम और अन्धविश्वास को दूर करने में लगा हूँ अब | जो भी अब इच्छुक हैं You tube में Gopal Raju को देख रहे हैं |
    पुनः पुनः आभार मेरे भाई
    अकिंचन गोपाल राजू
    www.bestastrologer4u.blogspot.in
    www.bestastrologer4u.com
    www.gopalrajuarticles.webs.com etc....

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  3. धन्यवाद मेरे प्रिय भाई राजवीर जी,
    आपने मेरी पुस्तक का विवरण दिया | आनंदित हूँ |नहीं तो कौन किसको पूछता है |
    नकल की बढती हुई मानसिकता से त्रस्त हूँ इसीलिए लेखन कार्य कम कर दिया है | छोटे-छोटे क्लिप्स के माध्यम से गुह्य विधाओं के भ्रम और अन्धविश्वास को दूर करने में लगा हूँ अब | जो भी अब इच्छुक हैं You tube में Gopal Raju को देख रहे हैं |
    पुनः पुनः आभार मेरे भाई
    अकिंचन गोपाल राजू
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  4. मेरा जनम रेवती नक्षत्र का ह लेकिन कोई मूल शांति नही हुई लेकिन अब तक लाइफ में बहोत प्रॉब्लम बानी हुई क्या कोई मूल शांति का उपाय हैं जिससे मुझे शांति मिले

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